Saturday, August 21, 2010

"आशा"

आशा ही जीवन है, सुनने मे बड़ा अच्‍छा लगता है लेकिन अगर देखा जाये तो अपने देश में क्‍या ये संभव है। क्‍योंकि आशा स्‍त्रीलिंग है, जीवन पुलिंग और अपने देश में आशा और जीवन के बीच कितना अन्‍तर है ये बताने की जरूरत नही है। जहाँ आशा को किसी श्राप से कम नही समझा जाता हो वहाँ कैसे कह सकते हैं कि आशा ही जीवन है।

आशा ही जीवन है, इसी सोच के साथ रोज एक नई पार्टी का जन्‍म होता है। नेता दल बदलते रहते हैं कि शायद किसी पार्टी से तो टिकिट मिलेगा, कोई पार्टी तो बहुमत मे आयेगी, कोई तो मंत्री बनायेगा।

आशा तो है जो लाखों लोगों को अपना काम छोड़ के टीवी के आगे बैठने में मजबूर करती है कि कभी तो शायद अपने भी महारथी {क्रिकेट टीम } कुछ कर दिखायेंगे।

शायद इसी आशा के दम पर कुछ लोग विलुप्‍त होती अपनी राष्‍ट्र भाषा को जिंदा रखे हुए है। और ये आशा ही है जो शायद आदमी को नपुंसक बनाती है, क्‍योंकि ‘आशा ही जीवन’ की माला जपते हुए वो हाथ मे हाथ रख कर बैठा रहता है।

और ये आशा ही है जो छोटे-छोटे बच्‍चों को देख कर मुझे भी ये कहने मे मजबूर करते है कि शायद ‘आशा ही जीवन’ है।

आशा ही जीवन है इसका मतलब यही होता है की आज का काम कल पर छोड़ दो और आपनी समस्या दुसरे के भरोसे छोड़ देते है की वही हल करेगा लेकिन क्या यह सही है ?

"आशा ही जिंदगी / जीवन है सिर्फ सुनाने में अच्छा लगता है, बस और कुछ नहीं है "...सुरेन्द्र

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